Na Kisi Ki Aankh Ka Noor Hoon Ghazal by Muztar Khairabadi
Explore the evocative verses of Na Kisi Ki Aankh Ka Noor Hoon Ghazal by Muztar Khairabadi, as he navigates themes of solitude and self-identity through his poetry.His words capture the essence of a solitary existence, yearning for connection, and the search for one’s place in the world.
Noted Poet And Writer Javed Akhtar Has Claimed That The Famous Ghazal “Na Kisi Ki Aankh Ka Noor Hoon” Has Been Penned By His Grandfather Muztar Khairabadi And Not By The Last Mughal Emperor Bahadur Shah Zafar, As It Is Popularly Believed.
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
कसी काम में जो न आ सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ
न दवा-ए-दर्द-ए-जिगर हूँ मैं न किसी की मीठी नज़र हूँ मैं
न इधर हूँ मैं न उधर हूँ मैं न शकेब हूँ न क़रार हूँ
मिरा वक़्त मुझ से बिछड़ गया मिरा रंग-रूप बिगड़ गया
जो ख़िज़ाँ से बाग़ उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम्अ’ जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
न मैं लाग हूँ न लगाव हूँ न सुहाग हूँ न सुभाव हूँ
जो बिगड़ गया वो बनाव हूँ जो नहीं रहा वो सिंगार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ
न मैं ‘मुज़्तर’ उन का हबीब हूँ न मैं ‘मुज़्तर’ उन का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ