Khwaab Ki Tarah Bikhar Jaane Ko Ji Chaahta Hai Ghazal by Iftikhar Arif
Khwaab Ki Tarah Bikhar Jaane Ko Ji Chaahta Hai
Khwaab Ki Tarah Bikhar Jaane Ko Ji Chaahta Hai Ghazal by Iftikhar Arif – Delve into the heartfelt verses of Iftikhar Arif as he explores the deep desires and contemplations of life. His evocative poetry expresses the yearning for freedom, solitude, and meaningful connections, inviting you to explore the intricate emotions of the human experience.
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है हिन्दी में
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है
डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए
ऐसी नद्दी में उतर जाने को जी चाहता है
कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े
ऐसी मंज़िल से गुज़र जाने को जी चाहता है
वही पैमाँ जो कभी जी को ख़ुश आया था बहुत
उसी पैमाँ से मुकर जाने को जी चाहता है